सुभाष राज स्वतंत्र पत्रकार:

अगर भारतीय सनातन धर्मग्रंथों के चश्मे से देखें तो जैसे राक्षसों के बोझ से पृथ्वी दोहरी हो जाती थी, वैसे ही आधुनिक इंसानों की विकास की असीमित भूख पृथ्वी को बोझिल बना रही है। धरती इंसानों के बनाए कंक्रीट के ढांचों तथा कृत्रिम संरचनाओं के वजन से न सिर्फ दोहरी हो रही है बल्कि वह अपनी उन क्षमताओं को भी खो रही है जिनके बल पर वह नुकसान की भरपाई करके इंसानी सभ्यता को पीढ़ी दर पीढ़ी ढोती आ रही है।

एक अध्ययन के अनुसार पृथ्वी पर मानव निर्मित वस्तुओं का वजन धरती पर मौजूद सभी जीवित प्राणियों के वजन के बराबर हो चुका है। हाल ही ‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक मनुष्य की बनाई गई वस्तुओं का कुल वजन 1.1 लाख करोड़ टन से अधिक हो गया है। ये ग्रह पर मौजूद सभी जीवित प्राणियों के वजन को पार कर गया है। इससे पृथ्वी पर मौजूद जीवन का दायरा सिकुड़ता जा रहा है।

कंक्रीट और कोलतार की सड़कें, फुटपाथ, कांच, धातु और कंक्रीट की गगनचुंबी इमारतों से लेकर प्लास्टिक की बोतलों, कपड़ों, कंप्यूटरों तक लगभग हर चीज का भार अब पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवित प्राणियों के द्रव्यमान के बराबर चुका है। मानव निर्मित वस्तुओं का वजन न सिर्फ तेजी से बढ़ रहा है बल्कि वह दो दशक में दो गुना हो जाता है। लेकिन वैश्विक ‘जैवभार’ का वजन लगभग स्थिर बना है। इस वजन में पेड़-पौधे तथा जैविक वनस्पतियां आती हैं।

‘टेक्नोस्फीयर’ नाम से जाना जाने वाला मानव निर्मित भार जिस तेजी से बढ़ रहा है, उससे पृथ्वी विज्ञानियों की पेशानी पर अभी से बल पड़े हुए हैं। पृथ्वी की उम्र के लिहाज से धरती पर मनुष्य और अन्य प्राणी पिछली शताब्दी तक पारिस्थितिकी तंत्र के हिस्से की तरह रह रहे थे लेकिन ऊर्जा की खोज से आए महत्वपूर्ण बदलाव ने मानव विकास को पंख लगा दिए। देखते-देखते बहुत कम समय में मनुष्य अपने लिए एक नई दुनिया गढने के लिए ज्ञान-विज्ञान के जरिए जीवित प्राणियों का नहीं बल्कि पूरी धरती का भाग्य विधाता बन बैठा है।

जब तक पारिस्थितिकी तंत्र बेलगाम हुए मानव पर एक जीव के रूप में नियंत्रण का सुरक्षा चक्र तैयार करता, मानव उसकी क्षमताओं से बाहर आ गया और उसने धरती और उसके पारिस्थितिकी तंत्र पर कालिदास की तरह हमले शुरू कर दिए। मनुष्य ने आहार श्रृंखला के सिरमौर जीव शेर, बाघ समेत बाज और गिद्धों की आबादी को नष्ट करके पारिस्थितिकी तंत्र की स्वयं की मरम्मत करने की क्षमता भी छीन ली। मनमौजी और उच्छृंखल जीव के रूप सामने आया इक्कीसवीं सदी का मानव तो इस लिहाज से बेहद क्रूर साबित हो रहा है। उसे ना तो धरती की परवाह है और ना ही अंतरिक्ष की। विकास की ऐसी सनक उस पर सवार हुई है कि वह अपने ही पैरों पर कुल्हाडी मार रहा है।

असल में पृथ्वी पर बड़े बदलाव का आगाज कृषि की शुरुआत से हुआ। औद्योगिक क्रांति के बाद निर्माण कार्य और धरती के स्वरूप में व्यापक स्तर पर परिवर्तन शुरू हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप मानव निर्माण धरती से भारी हो चला है। मानव निर्मित वस्तुओं में प्लास्टिक और हजारों किस्म के नए रसायन शामिल हैं तो पहले से मौजूद वस्तुओं कंक्रीट, धातु, बजरी, ईंट का स्वरूप बदल दिया गया है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में वजन के हिसाब से मानव निर्माण का अनुमानित वजन लगभग 35 अश्व टन था, जो उस समय के सारे प्राणियों के वजन का मात्र तीन फीसद था।

नेशनल जियोग्राफी की एक रिपोर्ट अनुसार मौजूदा दौर में केवल एक साल में 30 अरब टन वजन के बराबर निर्माण किया जा रहा है। मात्र सौ-सवा सौ सालों में मानव निर्माण पृथ्वी पर मौजूद कुल ‘जैवभार’ के बराबर आ पहुंचा है। काबू नहीं पाया गया तो 2040 आते-आते पृथ्वी पर जीवन का दायरा सिकुड़ कर मानव निर्माण का एक-तिहाई ही रह जाएगा। तमाम चेतावनियों के बावजूद प्लास्टिक का इस्तेमाल इस कदर बढ़ गया कि उसकी मांग की पूर्ति के लिए लगभग आठ अरब टन प्लास्टिक का निर्माण अभी तक हो चुका है।

अर्थात अभी मौजूद हर व्यक्ति के हिस्से का लगभग एक टन प्लास्टिक इस धरती पर बन चुका है। हालांकि प्लास्टिक का कुल वजन मानव निर्माण का मात्र एक फीसदी है लेकिन दूसरे कोण से देखें तो धरती पर जितने जानवर अभी मौजूद हैं, उनसे दो गुना वजन का प्लास्टिक अभी पृथ्वी पर मौजूद है।

मौजूदा तुलनात्मक अध्ययन धरती पर मौजूद जीवन के सभी रूपों पेड़-पौधे, जीव-जंतु, फफूंद, बैक्टीरिया, वायरस के वजन अनुमान और मानव निर्मित वस्तुओं के वजन के अनुमान के आधार पर किया गया। नेशनल जियोग्राफी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि केवल एक साल में हम 30 अरब टन निर्माण कर रहे हैं। यह एक भयावह स्थिति है।

इससे धरती के पारिस्थतिकी तंत्र और जंगली जानवरों की विविधता नष्ट हो रही है। वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (WWF) की ‘लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2022’ के अनुसार पिछले 50 वर्षों में दुनिया भर में स्तनधारियों, पक्षियों, उभयचरों, सरीसृपों और मछलियों की आबादी में 69% की गिरावट आई है। लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में यह गिरावट बहुत बड़े पैमाने पर हुई है। लैटिन अमेरिका में वन्य जीवों में कमी 94 प्रतिशत तक हुई है।

पिछले सौ-सवा सौ सालों में ही जंगली जानवरों (स्तनपायी) का वजन मनुष्य और पालतू जानवरों के मुकाबले 17 फीसद से घट कर मात्र 4 प्रतिशत तक रह गया है। समुद्र की जैव विविधता भी इससे अछूती नहीं है। पृथ्वी पर मनुष्य का वजन 39 करोड़ मीट्रिक टन और पालतू स्तनधारी जानवरों का वजन 63 करोड़ मीट्रिक टन है, जबकि वन्य प्राणी (स्तनधारी) धरती और समुद्र दोनों मिलाकर 6 करोड़ मीट्रिक टन ही बचे हैं।

जाहिर है कि प्रकृति का दायरा सिकुड़ रहा है। इस दायरे में पृथ्वी का प्राकृतिक स्वरूप, जंगल, नदी, पहाड़, झील, पेड़-पौधे, वन्य जीव शामिल हैं। ये सारे भौतिक परिवर्तन इतनी तेजी से हो रहे हैं, कि युगों में होने वाला बदलाव वर्षों हो जा रहा है। ये परिवर्तन दुनिया को जलवायु परिवर्तन, वैश्विक प्रदूषण और जैव विविधता ह्रास के ऐसे दुष्चक्र में धकेल रहे हैं, जिसके निराकरण की योजना किसी के पास नहीं है।