क्यों लिंगम को मानते हैं शिव का प्रतीक? यहां जानें शिव के पहले शिवलिंग की पूरी कहानी

नई दिल्लीः सावन का महीना चल रहा है और इस महीने लोग भगवान का जलाभिषेक करके पूजा करते हैं। अभी कांवड़िये भी बाबा के जलाभिषेक के लिए निकल पड़े। लोग तो बाबा शिव को लेकर उमंग में हैं। वहीं बादल भी प्रभु का जलाभिषेक कर रहे हैं। अब सवाल यह है कि बाबा औघड़दानी महादेव शिव के लिंगम स्वरूप का महत्व क्या है। वहीं इस प्रतिमा का महत्व सबसे ज्यादा क्यों है।

क्या आपको पता है कि लिंगम क्या है। लिंग पहचान करने वाले चिह्न को ‘आकृति जाति लिंगाख्या’ कहते हैं। शिव पुराण में जिक्र किया गया है कि पहला लिंग ज्योति स्तंभ स्वरूप है, जिसे प्रणव (ॐ) कहा जाता है। बता दें कि इस संपूर्ण ब्रह्मांड को स्थूल लिंग स्वरूप माना जाता है। यह ब्रह्मांड का ही मानचित्र है। इस पूरे संसार को लिंगभूत बोला गया है।

सर्वा लिंगमयी भूमि: सर्वं लिंगमयं जगत‌
लिंग युक्तानि तीर्थानि सर्वं प्रतिष्ठितम (शिवपुराण कोटिरुद्र संहिता)

यह पूरी पृथ्वी लिंग में है और सारा जगत भी लिंग में है। सारे तीर्थ लिंग में है और सारे प्रपंच लिंग मे ही प्रतिष्ठित हैं।

माना जाता है कि जिस तरह भगवान विष्णु के अव्यक्त ईश्वर रूप का प्रतीक शालिग्राम रूप पिंडी है, उसी तरह भगवान शिव के अव्यक्त ईश्वर रूप की प्रतिमा लिंगम रूप पिंडी है।

ब्रह्मदेव की कहानी

पद्म कल्प के शुरुआत में भगवान ब्रह्मा एक दिन खुद से घूमते हुए क्षीरसागर पहुंचे। भगवान नारायण शुभ, श्वेत, हजार फन वाले शेषनाग की शैय्या पर चुपचाप लेते थे। महालक्ष्मी उनकी सेवा कर रही थीं। ब्रम्हा को इस बात पर गुस्सा आया कि मै जगत पिता होकर क्षीरसागर में आया हूं और ये मेरा सही सम्मान नहीं कर रहे हैं। गुस्से में आकर ब्रह्मा ने उनपर प्रहार कर दिया। इसके बाद श्री नारायण के दाहिने अंग से भगवान विष्णु प्रकट हो गए और दोनों में युद्ध छिड़ गया।

आपको जानकारी के लिए बता दें कि नारायण स्वरूप, सर्वव्यापी रूप है, जिनका एक अंश एक रूप भगवान विष्णु हैं।ब्रह्मा जी और विष्णु जी अपने-अपने वाहन पर बैठकर युद्ध करने लगे। ब्रह्माजी ने ‘पाशुपत’ और विष्णु जी ने ‘महेश्वर’ अस्त्र ले लिए। जब भगवान शिव ने यह देखा तो दोनों के बीच अनादि अनंत ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हो गए।

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दश्यामादि देवो महानिशि.
शिवलिंग तपोदभूत: कोटि सूर्य समप्रभ:..

यानी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि (महाशिवरात्रि) को भगवान शिव करोड़ों सूर्य के समान प्रभा वाले लिंगम रूप में प्रकट हो गए और इस काल को ही महाशिवरात्रि कहा गया।

महेश्वर और पशुपत दोनों अस्त्र शांत हुए और ज्योतिर्लिंग में समा गए। ब्रह्मा-विष्णु दोनों चौंककर देखने लगे कि यह तीसरा तत्व कहां से प्रकट हो गया। इस तत्व के आदि अंत का पता करना चाहिए। जो भी इस अदि अंत पता लगा लेगा वही सबसे श्रेष्ठ होगा। दोनों अपने वाहन पर चढ़कर खोजने निकल गए। किसी को भी श्रीहरि मूल का पता नहीं लगा पाया।

ब्रह्मा को रास्ते में ऊपर से गिरता हुआ एक पुष्प मार्ग में मिला और एक गाय मिली। ब्रह्माजी ने दोनों को मिला लिया। ब्रम्हा ने कहा मैंने अंत का पता लगा लिया। साक्ष्य के रूप में केतकी का पुष्प और गाय है। गाय और पुष्प एवं ब्रह्मा जी ने झूठ बोला। विष्णु जी ने सही बोला कि उन्होंने आदि का पता नहीं लगा सके। आप जीत गए तो आप श्रेष्ठ हैं।

अब विष्णु जी जैसे ही ब्रह्मा जी की पूजा करने के लिए गए वैसे ही ज्योतिर्लिंग स्तंभ में शिवशंकर प्रकट हो गए। उन्होंने अपनी भौंह का एक बाल उखाड़कर पृथ्वी पर फेका और भैरव प्रकट हो गए। शिव की आज्ञा पाकर भैरव ने ब्रह्मा जी ने झूठ बोलने वाले पांचवें मुख काट दिया। इसके बाद से ही ब्रह्माजी चतुर्मुख हो गए। शिव जी ने ब्रह्मा जी को श्राप दे दिया कि किसी भी लोक में तुम्हारी पूजा नहीं होगी क्योंकि तमने झूठ बोला।

शिव में कहा तुम्हारी पूजा सिर्फ यज्ञ कर्म में और पुष्कर में ही की जाएगी। केतकी पुष्प को भी श्राप दे दिया कि किसी देवता की पूजा में तुम्हारा इस्तेमाल नहीं होगा। सिर्फ मंडप की सजावट में ही तुम्हारा इस्तेमाल होगा। भगवान विष्णु को सच बोलने के लिए वरदान दिया कि तुमको ईश्वरत्व मिलेगा। शिव ने आदेश दिया है कि यह लिंगम निष्कल ब्रह्म, निराकार ब्रह्म का प्रतीक है। इसकी पूजा अर्चना करते रहे। इसके बाद विष्णु और ब्रह्मा जी ने उस लिंगम स्तंभ की पूजा अर्चना की और गंगाजल से अभिषेक किया और तब से शिवाभिषेक की शुरुआत हो गई है।

विष्णु और ब्रह्मा जी ने आग्रह किया कि भगवान शिव जगत के कल्याण के लिए द्वादश ज्योतिर्लिंग में बंट गए तब से द्वादश ज्योतिर्लिंग पूजा लगातार होती आ रही है। जो लोग वैदिक कर्मों में श्रद्धा रखते हैं उन लोगों के लिए पार्थिव लिंग सारे लिंगों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है।

इसकी पूजा करने से इच्छा के अनुसार फल प्राप्त होता है। जैसे कि सतयुग में रत्न का, त्रेता में स्वर्ण का, व द्वापर में पारे का महत्व है, वैसे ही कलयुग में पार्थिव लिंग का बहुत महत्व है। जैसे कि गंगा नदी को सभी नदियों में श्रेष्ठ एवं पवित्र माना जाता है वैसे ही पार्थिव लिंग को सभी लिंगों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

पार्थिव लिंग की पूजा

पार्थिव लिंग की पूजा करने से धन-वैभव, आयु और लक्ष्मी आती है। जो व्यक्ति बाबा शिव के पार्थिव लिंग स्वरूप की रोजाना पूजा करता है उसे शिव पद यानी शिवलोक मिलता है। मनोकामना के अनुसार पार्थिव लिंग की संख्या होती है। जैसे कि बुद्धि पाने के लिए 1000 पार्थिव शिवलिंग, धन पाने के लिए डेढ़ हजार शिवलिंगों और वस्त्र आभूषण पाने के लिए 500 शिवलिंगों की पूजा करें।